अदालत ने 30 दिन की पूर्व-सूचना के इस प्रावधान को रद्द कर दिया और कहा कि शादी निजी मामला है। इसका ढिंढोरा पहले से पीटना क्यों जरुरी है ? उसे अनिवार्य बनाना मूलभूत मानव अधिकारों का उल्लंघन है। यही बात लव-जिहाद के उन कानूनों पर भी क्यों लागू नहीं की जाती, जो उत्तरप्रदेश, मध्यप्रदेश, उत्तराखंड, हिमाचल प्रदेश आदि की सरकारें बना रही हैं ? सर्वोच्च न्यायालय स्वयं क्यों नहीं इस समस्या का संज्ञान लेता है ? 1954 के कानून में 30 दिन का नोटिस है और लव जिहाद कानून में 60 दिन का है। इसी परेशानी की वजह से लोग पहले अपना धर्म-परिवर्तन कर लेते हैं और फिर शादी कर लेते हैं ताकि उन्हें किसी अदालत-वदालत में जाना न पड़े। दूसरे शब्दों में लव-जिहाद कानून की वजह से अब धर्म-परिवर्तन को बढ़ावा मिलेगा याने यह कानून ऐसा बना है, जो शादी के पहले धर्म-परिवर्तन के लिए वर या वधू को मजबूर करेगा। ऐसी शादियाँ वास्तव में प्रेम-विवाह होते हैं। प्रेम के आगे मजहब, जाति, रंग, पैसा, सामाजिक हैसियत- सब कुछ छोटे पड़ जाते हैं। शादी के बाद भी जो जिस मजहब या जात में पैदा हुआ है, उसे न बदले तो भी क्या फर्क पड़ता है ? हमें ऐसा हिंदुस्तान बनाना है, जिसमें लोग मजहब और जात के तंग दायरों से निकलकर इंसानियत और मोहब्बत के चौड़े दायरे में खुली सांस ले सकें। |