गृहस्थ योगावतार का प्रेरक जीवन



(श्री श्री लाहिड़ी महाशय के 196वें आविर्भाव दिवस पर विशेष)

 लेखिका : सन्ध्या एस. नायर

“ईश्वर-साक्षात्कार आत्मप्रयास से सम्भव है, वह किसी धार्मिक विश्वास या किसी ब्रह्माण्ड नायक की मनमानी इच्छा-अनिच्छा पर निर्भर नहीं है।” योगावतार श्री श्री लाहिड़ी महाशय द्वारा इन शब्दों में प्रकट किया गया यह अत्यन्त महत्वपूर्ण आश्वासन केवल एक दार्शनिक विचार नहीं था अपितु उपरोक्त आदर्श के प्रति समर्पित उनके जीवन का एक जीवन्त प्रमाण था. 

            श्री श्री श्यामाचरण लाहिड़ी का जन्म 30 सितम्बर, 1828 को हुआ था। वे भगवान शिव के एक अनन्य भक्त के पुत्र थे। शास्त्रों के अनुसार शिवजी को “महायोगी” के रूप में पूजा जाता है। लाहिड़ी महाशय ने अपने बचपन में हिन्दी, उर्दू, संस्कृत, बंगाली, फ्रेंच और अंग्रेजी की शिक्षा प्राप्त की थी। उन्होंने वेदों का गहन अध्ययन किया था और विद्वान पण्डितों के मुख से धर्मशास्त्रों के प्रवचनों को भी ध्यानपूर्वक सुना था। अपने सभी साथियों के प्रिय, दयालु, सौम्य, और साहसी युवक ने परम्परानुसार सन् 1846 में श्रीमती काशीमणि के साथ पवित्र वैवाहिक सम्बन्ध स्थापित किया और वैदिक अनुशासन के अनुसार गृहस्थाश्रम का पालन किया। इस विवाह युति से चार सन्तानों का जन्म हुआ। 23 वर्ष की आयु में, सन् 1851 में, वे ब्रिटिश सरकार के मिलिटरी इंजीनियरिंग विभाग में एक लेखापाल के पद पर नियुक्त हुए। उनकी ईमानदारी और समर्पण की झलक उनके जीवन के सभी पक्षों में दिखाई देती थी, जिससे उनका विनम्र जीवन न केवल ईश्वर की दृष्टि में अपितु एक साधारण कार्यालय कर्मचारी के रूप में भी सर्वोत्कृष्ट बन गया था।

                  लाहिड़ी महाशय के तैंतीसवें वर्ष में सन् 1861 की शरद ऋतु में एक अत्यन्त महत्वपूर्ण घटना ने अब तक के एक “साधारण” जीवन की दिशा परिवर्तित कर दी। सम्पूर्ण मानव जाति की आध्यात्मिक धुरी की दिशा में भी एक विराट परिवर्तन हुआ। लाहिड़ी महाशय का स्थानान्तरण हिमालय में स्थित रानीखेत कर दिया गया। अत्यन्त रहस्यमय ढंग से एक दिन दोपहर को द्रोणागिरी पर्वत में पदयात्रा करते हुए उनकी भेंट हिमालय के अमर योगी महावतार बाबाजी से हुई। आश्चर्यचकित युवक को गुरुदेव ने एक रहस्यमय सन्देश दिया कि उन्होंने ही उनके वरिष्ठ अधिकारी के मन को गुप्त रूप से यह सुझाव दिया था कि लाहिड़ी महाशय को रानीखेत स्थानान्तरित कर दिया जाय। “जब कोई मनुष्य मानव मात्र के साथ एकता का अनुभव करता है, तब उसके लिए सभी मानव-मन संचार केन्द्र बन जाते हैं, और वह उनके माध्यम से अपनी इच्छा के अनुसार कार्य कर सकता है।”

                  बाबाजी ने उनके पूर्वजन्म के कुछ अकल्पनीय तथ्यों को प्रकट करने के पश्चात् हतप्रभ युवक को लुप्त प्राचीन क्रियायोग विज्ञान की दीक्षा प्रदान की। श्री श्री परमहंस योगानन्दजी के सुप्रसिद्ध आध्यात्मिक गौरव ग्रन्थ “योगी कथामृत” के “हिमालय में महल का सृजन” प्रकरण में अत्यन्त मार्मिक ढंग से इस अद्भुत घटना का विस्तृत वर्णन किया गया है। (योगानन्दजी के माता-पिता लाहिड़ी महाशय के शिष्य थे, और गुरुदेव ने स्वयं उन्हें भी उनके बचपन में अपना आशीर्वाद प्रदान किया था। अनेक वर्षों के पश्चात्, आज से एक शताब्दी से भी अधिक समय पूर्व, योगानन्दजी ने योगदा सत्संग सोसाइटी ऑफ इण्डिया (वाईएसएस) और सेल्फ़-रियलाइज़ेशन फ़ेलोशिप (एसआरएफ़) की स्थापना करके क्रियायोग के पवित्र विज्ञान का प्रसार करने का उत्तरदायित्व स्वीकार किया था)।

                  युवा लाहिड़ी महाशय गुरुदेव के चरणों में निरन्तर सात दिनों तक निर्विकल्प समाधि के आनन्द में निमग्न रहे। आठवें दिन उन्होंने बाबाजी से प्रार्थना की कि वे उन्हें उन निर्जन पर्वतों में सदैव अपने साथ ही रहने दें। परन्तु उनके दयालु गुरुदेव के मन में उनके लिए महान् योजनाएं थीं। “तुम्हारा जीवन आदर्श गृहस्थ-योगी का उदाहरण बनकर शहरों की भीड़भाड़ के बीच रहने के लिए है।….तुम्हें सच्चे जिज्ञासुओं को क्रियायोग के माध्यम से आध्यात्मिक दिलासा देने के लिए चुना गया है।....तुम्हारे सन्तुलित जीवन से यह बात उनकी समझ में आ जाएगी कि मुक्ति बाह्य त्याग पर नहीं, अपितु आन्तरिक वैराग्य पर निर्भर करती है।”

                  इस प्रकार लाहिड़ी महाशय का सामंजस्यपूर्ण सन्तुलित जीवन जनसाधारण के लिए एक प्रेरणास्रोत बन गया। उन्होंने सभी मतावलम्बियों को क्रियायोग दीक्षा का उपहार प्रदान किया। उन्होंने तत्कालीन कठोर जातिवादी कट्टरता को दूर करने के लिए भी अथक प्रयास किए।

                  योगावतार प्रायः अपने शिष्यों को इन शब्दों के साथ प्रोत्साहित किया करते थे, “बनत, बनत, बन जाय।” अर्थात् निरन्तर प्रयास करते रहने से अन्ततः दिव्य लक्ष्य की प्राप्ति अवश्य होगी। अधिक जानकारी : yssofindia.org



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